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कल उत्तर प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव का तीसरा दौर सम्पन्न हुआ। मैं भी गोण्डा ज़िले में ड्यूटी करके आज जैसे- तैसे घर लौटा हूँ। चुनाव के दौरान वैसे तो तमाम आसानियों-परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है पर एक बात शायद कभी भी समझ में न आने वाली यह है कि- (हो कोई विद्वान जो समझा दे!) मैं बचपन से देख रहा हूँ तथा अब तो अनेकश: भुक्तभोगी भी हूँ कि चुनाव-कर्मचारियों के गमनार्थ साधन-स्वरूप अधिकारियों को शुरुआत से अब तक सर्वाधिक सुविधा जनक सवारी ट्रक, जो सर्वविद है कि यह माल-वाहन है, ही क्यों नज़र आ रही है? जिसमें कर्मचारियों को भूसे के समान ठूँस-ठूँस कर भरके भेज दिया जाता है। तब भी आदमी भूसा था और अब विकास-पथ पर इतना अग्रसर हो जाने के बाद भी भारत में आदमी भूसा है। सम्भव है शुरुआती दौर में साधनों का अभाव तथा रास्तों की विकटता इस अनुसंधान की मूल रही हो पर अब ऐसी कोई भी मज़बूरी नहीं दिखायी पड़ती। वहाँ तो यह व्यवस्था कतई असमीचीन है जहाँ साधन तथा सड़कों की पर्याप्त सुविधा है। यद्यपि भारत में कई ऊबड़-खाबड़ जगह हैं पर प्रत्येक जगह और हर समय के लिए यही सिद्धान्त स्वीकार कर लेना मज़बूरी नहीं धृष्टता मानी जाएगी तथा ऐसी हरक़त को अधिकारियों की भ्रष्टाचारिता की संग्या से क्यों न अभिहित किया जाय? क्यों न माना जाय कि यह उनका पैसा बचाने का चक्कर है? जब कोई ख़ास वज़हात नहीं हैं तब आदमियों के साथ जानवरों तथा भूसे के माफ़िक सलूक क्यों किया जा रहा है? दिखावे के बतौर एक-दो बस की व्यवस्था कर देना कर्मचारियों में आपसी ईर्ष्या तथा आत्महीनता को बढ़ावा देना ही है।
क्या हम आज भी गुलामी की मानसिकता से उबर नहीं पा रहे हैं? क्या हम आज भी लकीर के फ़कीर नहीं बने हुए हैं? अँग्रेजियत का भूत हम पर कब तक सवार रहेगा? ऐसी हरक़त को नौकरशाही परम्परा की अति क्यों न मानी जाय? हम कब तक अपने भाग्य को अनावश्यक रूप से कोसें? (क्योंकि चुनाव-ड्यूटी में जाने पर हमारी प्रथम चिन्ता होती है कि बस मिलेगी या ट्रक और अक्सर ही ट्रक मिलने पर हमें अपने भाग्य को कोसना पड़ता है) आदि प्रश्नों का उत्तर किस सूचना अधिकार के तहत समस्त कर्मचारियों के जानिब से किससे मागूँ? कोई तो बताए!!!
– ग़ाफ़िल
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