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जब कभी इंसानी फितरत के बारे में सोचो, तो न जाने क्यूँ बहुत अचंभा सा होता है। इंसान की ही क्यूँ, बल्कि अगर यह कहा जाये, कि भगवान की भी ऐसी ही कुछ फितरत रही थी उस युग में जब राम राज हुआ करता था। तो शायद गलत नहीं होगा। हमेशा जो है, उसमें संतुष्ट रहते हुए आगे बढ़ना तो जैसे इंसान ने कभी सीखा ही नहीं, हमेशा जो पास है उसे छोड़कर नये की तलाश में हमेशा ही भटकता रहा है इंसानी मन। अक्सर यह दोस्ती के रिश्ते में बड़ी आसानी से देखा जा सकता है, कि नये दोस्त मिलने के बाद बहुत से लोग अक्सर पुराने दोस्तों को भूल जाया करते हैं और जब उस भूलाए हुए दोस्त की महत्ता समझ आती है। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। दोस्ती ही क्या और भी ऐसे कई रिश्ते हैं जिनमें यह भावना निहित होती है। मगर मेरा सवाल यह है, कि अपना बागीचा छोड़कर, हमेशा पड़ोसी के बागीचे की घाँस ही क्यूँ ज्यादा हरी नज़र आती है और जब तक समझ आता है कि अपनी भी बुरी नहीं है, तब तक अपने बागीचे की घाँस सुख चुकी होती है। अजीब भावनाओं का खेल है यह, मैं तो जब सोचने…
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