ग़ाफ़िल की कलम से
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बारहा दर-ब-दर पत्थर तलाशते हैं वो।
वह मिल जाय तो फिर सर तलाशते हैं वो।।
हद हुई ताज की भी मरमरी दीवारों पर,
बदनुमा दाग़ ही अक्सर तलाशते हैं वो।
साफ़गोई से फ़ित्रतन न वास्ता जिनका,
मंच ऊँचा व पा ज़बर तलाशते हैं वो।
बदख़याली से सरापा हैं ख़ुद सियाह बदन,
चाँद के मिस्ल हमसफ़र तलाशते हैं वो।
जिनको फ़ुर्सत है नहीं मिह्रबान होने की,
ख़ुद ज़ुरूरत पे मिह्रवर तलाशते हैं वो।
देख ग़ाफ़िल! हैं मह्वेख़ाब इस क़दर मयकश,
चश्मे-साक़ी में भी साग़र तलाशते हैं वो।।
(साफ़गोई=स्पष्टवादिता, पा ज़बर=मज़बूत पैर वाला, चाँद के मिस्ल=चाँद सा, हमसफ़र=जीवनसाथी, मिह्रवर=मिह्रबाँ, कृपा करने वाला, मह्वेख़ाब=स्वप्न में लीन, चश्मे-साक़ी=साक़ी की आँख, साग़र-शराब से भरा प्याला)
-ग़ाफ़िल
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