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समझो बहार आई

ग़ाफ़िल की कलम से
ग़ाफ़िल की कलम से
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कोई फूल महक जाए समझो बहार आई
कोई गीत गुनगुनाए समझो बहार आई


सुलझी हुई सी पूरी ये प्यार वाली डोरी

गर फिर से उलझ जाए समझो बहार आई


सूरत की भोली-भाली वह क़त्ल करने वाली
ख़ुद क़त्ल होने आए समझो बहार आई


कर दे जो क़रिश्मा रब गरचे विसाल की शब
गुज़रे न ठहर जाए समझो बहार आई


गोया कि है ये मुश्किल कोई हुस्न इश्क़ को फिर

आकर गले लगाए समझो बहार आई


ग़ाफ़िल भी जिसका अक्सर जगना हुआ मुक़द्दर
सपने अगर सजाए समझो बहार आई


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